प्राचीन प्रसंग के अनुसार राजा दशरथ ने शनिदेव से कहा कि आप किसी को पीड़ा न पहुंचाएं। शनिदेव ने कहा - यह वर असंभव है क्योंकि जीवों के कर्मानुसार सुख-दुख देने के लिए ही ग्रहों की नियुक्ति हुई है किंतु मैं तुम्हें वर देता हूं कि जो तुम्हारी इस स्तुति को पढ़ेगा, वह पीड़ा से मुक्त हो जाएगा।
कोणाऽन्तको
रौद्रयमोऽथ ब्रभु:।
कृष्ण शनि: पिंगलमंद सौरि:।
नित्यं समृतो यो हरते च
पीड़ां
तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय।।1।
सुरासुर: किंपुरुषा गणेंद्रा
गन्धर्वविद्याधरपन्नगाश्च।
पीड्यंति सर्वे विषमस्थितेन,
तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय।।2।।
नरा नरेन्द्रा : पशवो मृगेंद्रा
वन्याश्य ये कीटपतंगभृंगा।
पीड्यंति सर्वे विषमस्थितेन
तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय।।3।।
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र
सेनानिवेशा: पुरपत्तनाति।
पीड्यंति सर्वे विषमस्थितेन
तस्मै नम : श्रीरविनंदनाय।।4।।
तिलैर्यवैर्माषगुडन्नदार्नै
लोहेन नीलाम्बरदानतो वा।
प्रीणात मंत्रैॢनजवासरे च
तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय।।5।।
प्रयागकूले यमुनातटे च
सरस्वती पुण्यजले गुहायाम्।
यो योगिनां ध्यानगतोऽपि सूक्ष्मरतस्मै नम: श्रीरविनंदनाय।।6।।
अन्यप्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्ट-
स्तदीयवारे स नर: सुखी
स्यात्।
गृहाद गतो यो न
पुन: प्रयाति
तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय।।7।।
स्रष्टा स्यंभूर्भुवनतरस्य
त्राता हरि: संहरते पिनाकी।
एकस्त्रिधा ऋग्यजु: साममूॢत
तस्मै नम: श्रीरविनंदनाय।।8।।
शन्यष्टकं य: प्रयत: प्रभाते
नित्यं सुपुत्रै: पशुबांधवैश्व।
पठेच्च सौख्यं भुवि भोगयुक्तं
प्राप्नोति निर्वाणपदं परं स:।।9।।
सौरि:शनेश्चरो मंद: पिप्पलादेन संस्तुत:।।10।।
शनैश्चरकृता पीडा न कदाचिद्भविष्यति।।11।।